1992 का एक इतवार था, जब मैं लखनऊ के अपने लाटूश रोड ऑफिस जा रहा था। मेरे साथ बाराबंकी के मशहूर अमीर पेंटर साहब भी थे। अमीर पेंटर साहब का बाराबंकी में बड़ा नाम था, उनके अमीर आर्ट की दुकान पर हमेशा सियासतदानों का जमावड़ा रहता था। उस दिन, हम निशातगंज के फ्लाईओवर से उतर ही रहे थे कि एक हादसा हो गया, जिसने मेरे अंदर के इंसानियत के जज्बे को पूरी तरह से झकझोर दिया।
हमारे आगे-आगे बाराबंकी का एक शेयर ब्रोकर मृदुल, अपनी चेतक स्कूटर पर अपनी पत्नी के साथ जा रहा था। उसने हमें ओवरटेक किया और अचानक एक भारी-भरकम आदमी से जा टकराया। वो आदमी गुस्से में था, और मृदुल और उसकी पत्नी गिर गए। भीड़ ने तमाशा देखना शुरू किया, लेकिन किसी ने भी आगे बढ़कर मदद करने की जहमत नहीं उठाई।
वो गुस्सैल आदमी मृदुल को उठाकर बुरी तरह पीटने लगा। उसकी पत्नी रो-रोकर गुहार लगा रही थी, लेकिन कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया। यह देखकर मैं अपनी स्कूटर अमीर पेंटर साहब को सौंपते हुए फौरन मृदुल की तरफ दौड़ा। जैसे ही मैं मृदुल के पास पहुंचा और उसे बचाने की कोशिश की, वो आदमी मुझ पर भी हमला करने लगा। उस वक्त मेरे सिर पर हेलमेट था, जिससे मुझे थोड़ी सुरक्षा मिली।
मैंने देखा कि मृदुल उनकी पत्नी भी भीड़ में खड़े होकर “मारो मारो कर रहे थे ,मैने मृदुल को इशारा किया मेरे साथ आओ, लेकिन वो खुद इस कदर पिट चुका था कि उसकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। मैं अकेला ही उस ताकतवर ज़ालिम आदमी से लड़ता रहा। मेरे वार उसके चेहरे पर और उसके वार मेरे हेलमेट पर पड़ रहे थे।
मेरे लिए लड़ाई मुश्किल होती जा रही थी। अचानक उसने मेरे हेलमेट को झपट लिया और मेरे सिर से खींचकर फेंक दिया। मैंने हेलमेट को उठाने के लिए झपट्टा मारा और उसे वापस पाने की कोशिश की। हेलमेट वापस पाकर हेल्मेट तानकर जैसे ही मैंने उसकी ओर कदम बढ़ाया, वो आदमी डरकर भाग खड़ा हुआ। भीड़ में खड़े लोग हंस रहे थे, और मैं बिना कुछ बोले अपनी स्कूटर पर वापस बैठा और ऑफिस की तरफ निकल पड़ा।
ऑफिस पहुंचने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरा चश्मे का कवर, जिसमें मेरी तस्बीह रखी थी, लड़ाई के दौरान कहीं गिर गया था। मेरे दिल में एक अजीब सा मलाल था, मानो मुझसे कोई बड़ी गलती हो गई हो। तस्बीह मेरे लिए बेहद खास थी और उसका खोना मेरे लिए किसी सज़ा से कम नहीं था।
कुछ दिन बाद, जब मैं डॉक्टर टंडन के सामने से गुजर रहा था, तो मैंने मृदुल को उसके मकान के सामने बैठे देखा। उसने मुझे देखा और बुलाया। हम दोनों के बीच सलाम-दुआ हुई। मृदुल ने मुझे बैठाया और कहा, “भाई साहब, मेरी पत्नी कह रही थी कि आप देवता बनकर हमें बचाने आए थे।” उसकी पत्नी ने आकर मेरे पैर छुए और शुक्रिया अदा किया। फिर अंदर जाकर उसने मेरा चश्मा और तस्बीह मुझे देते हुए कहा ये आपकी है । इसको मैंने बडी एहतियात से गीता के पास रक्खा था, मैं रोज़ दुआ करती थी ईश्वर इस माला को इसके जपने वाले तक पहुचा दे।
तस्बीह को अचानक देखकर मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई। ये मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। मेरी आँखो में आँसू थे,
मैं महीनों से इस तस्बीह के खोने का मलाल लिए घूम रहा था, और उसे वापस पाकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने खुदा का शुक्र अदा किया और उन लोगों का भी जिन्होंने मेरी चीज़ें संभालकर रखीं।
उस घटना के बाद भी मेरे दिल में तस्बीह के मिलने का एहसास एक सुकून की तरह बसा रहा। यह छोटी सी चीज़ मेरे लिए अब सिर्फ एक तस्बीह नहीं रही, बल्कि एक निशानी बन गई—एक ऐसी निशानी जो मुझे हमेशा याद दिलाती रही कि खुदा का करम हमेशा उन पर होता है जो सही रास्ते पर चलते हैं, भले ही हालात कितने ही मुश्किल क्यों न हों।
वक्त बीतता गया, लेकिन उस दिन की घटना ने मुझे एक सीख दी, जो शायद हर इंसान की जिंदगी में मायने रखती है। मुश्किल हालात में भी जब हम हिम्मत से काम लेते हैं,और मज़लूम की मदद करते है तो खुदा हमारे साथ होता है। और जब हम किसी को मुसीबत से बचाते हैं, तो एक दिन वही मदद लौटकर हमारे पास आती है—कभी किसी के शुक्राने में, तो कभी एक खोई हुई तस्बीह के रूप में।
“एक नई उम्मीद और दुआ का महत्व:
इस घटना के बाद, जब भी मैं दुनिया की खबरें देखता हूँ— दुनिया के कई हिस्सों में इंसानियत के खिलाफ जुल्म जारी है। इजराइल और गाजा लेबनान के बीच के संघर्ष की खबरें पढ़कर मेरा दिल बैठ जाता है। हजारों मासूम बच्चों की मौतें, परिवारों का उजड़ना, और बेगुनाहों का खून बहाना एक ऐसी हकीकत है, जिसे देखना और सुनना किसी भी इंसान के लिए असहनीय है। पर मैं जानता हूँ कि इस वक्त हम सिर्फ एक ही चीज़ कर सकते है वो है मज़लूमो के लिए दुआ।
“जैसे मेरी तस्बीह मुझे वापस मिली, वैसे ही शायद एक दिन बैतुल मुकद्दस और दुनिया में अमन लौट आए। बस हमें खुदा से दुआ करनी है, क्योंकि दुआ में वो ताकत है जो किसी भी जुल्म और अन्याय को हरा सकती है। अगर हम कुछ और नहीं कर सकते, तो भी हम दुआ के साथ दुनिया में अमन और इंसाफ के लिए खड़े रह सकते हैं।”
दुआ की ताकत को कभी कम नहीं समझना चाहिए। बैतुल मुकद्दस की सलामती और उन बेगुनाहों के लिए दुआ करना हमारी सबसे बड़ी मदद हो सकती है। अगर हम कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम अपने रब से दुआ करें कि जालिमों का खात्मा हो और हक की जीत हो।
जिंदगी में हर लड़ाई ताकत से नहीं जीती जाती, कभी-कभी सिर्फ हिम्मत और सही वक्त पर सही फैसला लेने से बड़ी जीत मिलती है। तस्बीह की तरह, इंसानियत का वो खोया हुआ हक भी हमें एक दिन जरूर मिलेगा, अगर हम अपने ईमान और इंसाफ पर यकीन बनाए रखें।