शबाहत हुसैन विजेता
शब-ए-बारात, गुनाहों से माफ़ी की रात। रूहों की आज़ादी की रात। अपने पुरखों और अज़ीज़ों के लिए अल्लाह से दुआ की रात। उर्दू महीने शाबान की 14 तारीख को होती है शब-ए-बारात। दुनिया भर के कब्रिस्तानों में सिर्फ यही एक रात होती है जब सबसे ज़्यादा रौनक होती है।
कल शब-ए-बारात थी। इस रात की तैयारियां कई रोज़ से चल रही थीं। जिन लोगों के अज़ीज़ों की कच्ची कब्रें हैं उन्होंने कब्रिस्तान के मैनेजर से बात कर वहां पैसे जमा कर दिए थे ताकि उनके अज़ीज़ की कब्र पर मिट्टी चढ़ा दी जाए।
बारिश और वक्त के थपेड़ों से मिट्टी की जो कब्र टूट गई है वह फिर से संवार दी जाये। उस पर चूना पोत दिया जाये ताकि वह देखने में अच्छी लगने लगे। जिन लोगों के अज़ीज़ों की पक्की कब्रें हैं वह लोग खुद कपड़ा, ब्रश और पानी लेकर कब्रों को साफ़-सुथरा करने में लगे थे।
शब-ए-बारात दरअसल इस बात की भी दस्तक होती है कि मर जाने वाले किस-किस शख्स के रिश्तेदार मौजूद हैं। जिसका रिश्तेदार नहीं होता उसकी कब्र पर कोई मिट्टी नहीं चढ़वाता, कोई चूना नहीं पुतवाता। कोई फूल लेकर नहीं आता। कोई मोमबत्ती और अगरबत्ती नहीं जलाता और कोई भी कब्र के पास बैठकर अल्लाह से यह दुआ करता नहीं दिखता कि या अल्लाह मेरे इस अज़ीज़ के गुनाह बख्श दे। या अल्लाह मेरे इस रिश्तेदार को भी जन्नत में जगह दे दे।
शब-ए-बारात पर हर कब्रिस्तान रौशनी से जगमगाता है। कब्रें फूलों से सजी होती हैं। औरतें और बच्चे कब्रों को इस तरह से सजाते हैं जैसे कोई रंगोली बना रहे हों। कब्रों की सजावट और मोमबत्तियों की तादाद से यह पता चल जाता है कि कौन सी कब्र कितनी पुरानी है।
शब-ए-बारात उन इमोशंस की रात है जो ज़ाहिर हो जाते हैं। जो बहुत कम उम्र में मर गए उनके बीवी-बच्चे अपनी भीगी आँखों के साथ जिस तरह से कब्र को सजाते हैं वह दिल दहला देने वाला मंज़र होता है। कुछ ऐसी कब्रें भी होती हैं जिसमें ऐसे नौजवान की मौत हो गई होती है जिसमें शादी तय हो जाने के बाद अचानक मौत हो गई।
ऐसी कब्रों पर माँ-बाप और बहनें जिस अंदाज़ में रोती हैं उससे ज़िन्दा लोगों को यह अहसास होता है कि उनकी ज़िन्दगी कई लोगों के लिये कितना अहम होती है। यह अहसास ऐसे लोगों के लिए होता है जो तेज़ रफ़्तार गाड़ियाँ चलाते हैं या फिर अपनी बिगड़ती सेहत को हवा में उड़ा देते हैं। यह रात सीधी-सच्ची ज़िन्दगी जीने का रास्ता भी दिखा जाती है।
कब्रिस्तान में हाल में दफ्न हुए लोगों की बेटियां जब सजी हुई कब्रों से लिपटकर रोती हैं तो यह अहसास जाग जाता है कि बेटियां नहीं होतीं तो घर छोड़िये मरने के बाद कब्र भी रौशन नहीं हो पाती। इस बात में कोई भी शक नहीं कर सकता कि बेटियों के रोने की आवाज़ से ही यह अहसास पैदा होता है कि मर जाने वाले की अभी बहुत ज़रूरत थी।
शब-ए-बारात पर एक बुज़ुर्ग झोले में गुलाब के फूल भरकर कब्रिस्तान में दाखिल हुआ। उम्र का असर चेहरे से लेकर चाल तक में दिख रहा था। नयी ताज़ी कब्र पर उसने फूलों का झोला पलट दिया। कब्र को सजाने की उसकी हिम्मत नहीं थी। वह तेज़ रफ़्तार में चिल्लाकर रोया। बेटा तुम क्यों चले गए हमें छोड़कर जाने का तो मेरा वक्त था। अब किसके सहारे जियें। कहाँ से करें तुम्हारी बहनों की शादी बेटा… मुझे भी बुला लो अपने पास।
एक और कब्र पर ताज़ा सजे फूलों पर मेंहदी लगी दो हथेलियाँ इधर से उधर यूँ चलती दिखीं जैसे कोई अपने प्यार से किसी की थकान उतारने की कोशिश कर रहा हो। इस कब्र के पास कुछ नौजवान भी खड़े हैं मगर बोल कोई नहीं रहा।
कब्रिस्तान के दरवाज़े के ठीक सामने एक नन्हीं सी कब्र सजी है। कब्रें तो पूरे कब्रिस्तान में सजी हैं मगर इस कब्र के पास आकर लगता है कि कलेजा मुंह को आ जायेगा। यह एक मासूम बच्चे की कब्र है। कब्र पर फूल के अलावा ढेर सारी टाफियां और चाकलेट रखी गई हैं।
शब-ए-बारात हर बार यह सिखाकर जाती है कि यह दुनिया धर्मशाला है। यहाँ आने वाले हर ख़ास-ओ-आम की आख़री मंजिल यही है। यहां आकर सिर्फ अँधेरा और अकेलापन ही साथी होता है। कोई कभी नहीं आता खैरियत पूछने। यहां मासूम हो, नौजवान हो या फिर बूढ़ा सभी को अकेले सोना पड़ता है।
यह रात तो फैसले की उस रात की याद दिलाने के लिए है कि एक रात आयेगी जब कर्मों के हिसाब से जन्नत और जहन्नुम का फैसला होगा लेकिन जो ज़िन्दा हैं, जो कब्र में नहीं अपने घरों में रहते हैं, बेहतर है कि वह अपनी ज़िन्दगी के बचे हुए पलों को भरपूर जी लें ताकि कब्रिस्तान में सो रहे शख्स के सिरहाने खड़े होकर यह दर्द न होने पाये कि यह कर लिया होता और यह न किया होता।
बच्चे माँ-बाप की हर बात मानकर उन्हें हमेशा खुश रखें और बच्चो की पूरी करने लायक़ हर ख्वाहिश माँ-बाप भी पूरी कर दें क्योंकि कब्र पर रखी चाकलेट बच्चे को नहीं मिल सकती लेकिन यह दर्द हमेशा सताता रहेगा कि जब उसने मांगी थी तब दी होती तो उस मासूम के चेहरे पर चाँद को पा लेने की ख़ुशी दिखी होती।