
मस्जिद और उपासना की अहमियत
इस्लामी जगत में मस्जिद की अहमियत और मौजूदा दौर में इसके रोल के मद्देनज़र हमने एक नई कार्यक्रम श्रंख्ला शुरु की है।
इस कार्यक्रम में हम पवित्र क़ुरआन की आयतों, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों व आचरण को आधार बनाकर मस्जिद की विभिन्न उपयोगिताओं के बारे में बताएंगे। इसी प्रकार इस कार्यक्रम श्रंख्ला में दुनिया की कुछ मशहूर मस्जिदों से आपको अवगत कराएंगे
मस्जिद ईश्वर का घर और उसकी बंदगी का स्थान है। इस्लामी संस्कृति व विचारों में मस्जिद को हमेशा पवित्र स्थल माना गया है। यह पवित्र स्थल ईश्वर के भक्तों के लिए आस्था के उच्च चरण को हासिल करने का स्थान होने के साथ साथ ऐसा स्थान है जहां सबसे बड़े क्रान्तिकारी व राजनैतिक फ़ैसले यहां तक कि रणनैतिक परामर्श भी लिए गए हैं। इसी तरह मस्जिद को इस्लामी संस्कृति, कला व सभ्यता का गढ़ माना जाता है। यह ऐसा स्थान है जिसने लोगों में एकता व सहयोग की भावना पैदा की और उनके सामाजिक मामलों को सुव्यवस्थित किया।
मानव इतिहास अपने आरंभ से अब तक ईश्वर की उपासना की मिसालों से भरा पड़ा है। हालांकि विभिन्न जातियों में विभिन्न दौर में उपासना की शैली अलग रही है लेकिन सबका सार एक रहा है और वह ईश्वर से संपर्क बनाना है जो सृष्टि का रचयिता व सर्वशक्तिमान है।
ईश्वर के अंतिम व संपूर्ण धर्म के रूप में इस्लाम ने भी ईश्वर की निकटता हासिल करने के लिए उपासना के विशेष नियम व संस्कार पेश किए हैं। इन पवित्र संस्कारों में नमाज़ की बहुत ज़्यादा अहमियत है जिसे ईश्वर की उपासना की सबसे स्पष्ट मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।
सभी ईश्वरीय व आसमानी धर्म यहां तक कि मानवीय मत भी उपासना करने व विशेष समारोह के आयोजन के लिए एक स्थान को विशेष करते हैं। विशेष संस्कार को अंजाम देने के लिए किसी स्थान को विशेष करना इतनी अहमियत रखता है कि मूर्ति पूजने वाले भी इस तरह का स्थान रखते थे जहां वे मूर्ति पूजते, बलि चढ़ाते व भजन गाते थे और अभी भी ऐसा ही है। ईसाई गिरजाघर में, यहूदी सिनेगॉग में और जर्तुश्ती या पार्सी अग्निकुंड में उपासना करते हैं लेकिन इस्लाम ने जिसके कांधे पर पूरी मानव जाति के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी है, मस्जिद को मुसलमानों की उपासना के लिए विशेष किया है।
मस्जिद को मस्जिद इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह वह स्थान है जहां बंदा ईश्वर के सामने इस बात का इक़रार करता है कि वह कुछ नहीं है। नमाज़ इस्लामी उपासनाओं में सबसे अहम उपासना है जिसे अंजाम देने पर बहुत बल दिया गया है और नमाज़ के विभिन्न संस्कारों में सजदा अर्थात ज़मीन पर माथा टेकने की ख़ास अहमियत है। सजदा ईश्वर की उपासना का चरम बिन्दु है जिसके ज़रिए इंसान अनन्य ईश्वर की महानता के सामने अपनी तुच्छता का इक़रार करता है। सजदा अनन्य ईश्वर के सामने सृष्टि की सभी चीज़ों की तुच्छता का प्रदर्शन है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के नहल सूरे की आयत नंबर 49 में ईश्वर फ़रमाता है, “ज़मीन और आसमान में जो कुछ चलने और रेंगने वाली चीज़ें हैं और इसी तरह फ़रिश्ते भी ईश्वर का सजता करते और घमन्ड नहीं करते।”
सजदा बंदगी का प्रतीक है। सजदा सभी प्रकार की उपासनाओं यहां तक नमाज़ के दूसरे भाग की तुलना में अलग शान रखता है। इसलिए मस्जिद का अर्थ सजदा करने का स्थान और नमाज़ ईश्वर की याद और उपासना है। मस्जिद को धार्मिक संस्कृति में ईश्वर का घर भी माना गया है।
सृष्टि में ज़मीन और आसमान सहित हर चीज़ का वजूद ईश्वर से है। लेकिन ईश्वर ने मस्जिद को अपना घर कहा है ताकि इस तरह इंसान इस स्थान की अहमियत को समझें और वहां पर ईश्वर की ओर से मिलने वाली अनुकंपाओं से फ़ायदा उठाएं। यही वजह है कि इंसान मस्जिद में ख़ुद को ईश्वर के ज़्यादा निकट महसूस करता है। अलबत्ता मस्जिद अपने दर्जे की दृष्टि से एकसमान नहीं हैं बल्कि कुछ मस्जिदों की अहमियत अधिक बतायी गयी है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से रिवायत में है कि सभी मस्जिदों में सबसे अहम मस्जिद मस्जिदुल हराम है। उसके बाद मस्जिदुन नबी सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम है। उसके बाद मस्जिदे कूफ़ा, उसके बाद मस्जिदुल अक़्सा, उसके बाद हर शहर की जामा मस्जिद, उसके बाद मोहल्ले की मस्जिद और फिर बाज़ार की मस्जिद की अहमियत है। मस्जिदुल हराम की अहमियत इतनी ज़्यादा है कि मुसलमानों पर अनिवार्य है कि अपनी नमाज़ इस मस्जिद व पवित्र काबे की ओर मुंह करके पढ़ें। मस्जिदुल हराम में नमाज़ का पुन्य दूसरी मस्जिदों की नमाज़ों की तुलना में हज़ारों नमाज़ों के बराबर है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, “घर में नमाज़ पढ़ने से इंसान को एक नमाज़ के बराबर पुन्य मिलता है। मोहल्ले की मस्जिद में 25 नमाज़ के जितना पुन्य मिलता है, जामा मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का पुन्य 500 नमाज़ों के बराबर है, मस्जिदुल अक़्सा में नमाज़ का पुन्य 5 हज़ार नमाज़ों के बराबर है, मस्जिदुन नबी में इसका पुन्य 50 हज़ार के बराबर है और मस्जिदुल हराम में एक नमाज़ पढ़ने का पुन्य 1 लाख नमाज़ पढ़ने के बराबर है।”
इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने मस्जिदुल हराम की अहमियत के बारे में फ़रमाया है, “जो कोई अपनी वाजिब नमाज़ मस्जिदुल हराम में पढ़े तो ईश्वर उसकी सभी नमाज़ों को जबसे नमाज़ पढ़ना उस पर अनिवार्य हुआ और इसी तरह पूरी उम्र वह जितनी वाजिब नमाज़ पढ़ेगा, क़ुबूल कर लेगा।”
मस्जिदुल हराम के साथ साथ दूसरी मस्जिदों की भी बहुत अहमियत है। जैसा कि हदीसे क़ुद्सी में ईश्वर कहता है, “ ज़मीनें पर मस्जिदों मेरा घर है जो आसमान वालों के लिए उसी तरह चमकते हैं जिस तरह सितारे ज़मीन वालों के लिए चमकते हैं। धन्य है वह जिसने मस्जिदों को अपना घर क़रार दिया। धन्य है। वह बंदा जो अपने घर में वज़ू करे और फिर मेरे घर में मेरी ज़ियारत करे। जान लो कि मुझ पर ज़रूरी है कि मैं उसके साथ भलाई करूं जो मेरी ज़ियारत करता है। जो लोग रात के अंधेरे में मस्जिद की ओर क़दम बढ़ाते हैं उन्हें प्रलय के दिन एक दमकते हुए प्रकाश की शुभसूचना दीजिए।
कार्यक्रम के इस भाग में आपको दुनिया की मशहूर व अहम मस्जिदों के बारे में बताएंगे कि जिनमें सबसे अहम मस्जिदुल हराम है जो पवित्र मक्का में स्थित है। मस्जिदुल हराम इस्लामी इतिहास की सबसे पुरानी मस्जिद है। चूंकि पवित्र काबे को बैतुल लाहिल हराम कहा गया है इसलिए इस मस्जिद को भी मस्जिदुल हराम कहा गया है। मस्जिदुल हराम का हमेशा से सम्मान होता रहा है। पैग़म्बरे इस्लाम के कथन में है कि सृष्टि की रचना के शुरु में पूरी ज़मीन पानी से डूबी हुयी थी। वह पहला स्थान जहां सबसे पहले सूख़ी ज़मीन प्रकट हुयी वह स्थान काबा है और ईश्वर ने इसी स्थान से ज़मीन को फैलाया। यही वजह है कि मक्के का एक नाम उम्मुल क़ुरा भी है। उम्मुल क़ुरा का अर्थ है बस्तियों की मां। इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, “जब ईश्वर ने चाहा कि ज़मीन को पैदा करे तो उसने चारों प्रकार की हवाओं को हुक्म दिया कि पानी को थपेड़े दें यहां तक कि थपेड़े से झाग निकलने लगे और उस झाग को इस घर में इकट्ठा करें और एक टीला बनाएं। उसके बाद ज़मीन को इसी पहाड़ के नीचे से बिछाया। आले इमरान सूरे की 96वीं आयत में ईश्वर जो यह कह रहा है कि हमने उसे लोगों के लिए पहला घर क़रार दिया वह वही घर है जो मक्का में है। ऐसा घर जो पूरी दुनिया वालों के लिए मार्गदर्शन और बर्कत का स्रोत है।” इसी तरफ़ इशारा है। तो इस तरह ज़मीन पर सबसे पहले जो घर बना वह काबा था और वहीं से ज़मीन का फ़र्श आगे बिछता गया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने भी फ़रमाया है, “ज़मीन पर सबसे अच्छा स्थान मक्का है। ईश्वर के निकट मक्के की मिट्टी से ज़्यादा किसी भी स्थान की मिट्टी उतनी प्रिय नहीं। मक्के के पत्थर से ज़्यादा कोई पत्थर प्रिय नहीं। मक्के के पेड़ से ज़्यादा कोई पेड़ प्रिय नहीं। मक्के के पहाड़ से ज़्यादा कोई पहाड़ प्रिय नहीं और मक्के के पानी से ज़्यादा कोई पानी प्रिय नहीं है।
इस्लामी जगत के मशहूर आत्मज्ञानी मुहयुद्दीन अरबी इस पवित्र स्थल के बारे में कहते हैं, “कोई भी ईश्वरीय दूत और वली ऐसा नहीं गुज़रा है जिसकी इस घर और इस शहर से कोई याद जुड़ी न हो।”
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम इस घर के बारे में फ़रमाते हैं, “ ईश्वर की सौगंध तू ज़मीन पर बेहतरीन भूमि और ईश्वर के निकट सबसे प्रिय है और अगर मुझे निकालते नहीं तो मैं कभी भी तुझे छोड़ कर न जाता।” जो भी ईश्वर के इस घर को देखे लेकिन उसकी आस्था में वृद्धि न हो तो इसका मतलब है कि ईश्वर के इस घर से उसने कोई बर्कत हासिल न की क्योंकि यह घर मार्गदर्शन व बर्कत से भरा ईश्वर का
इस्लामी रिवायत के अनुसार, सबसे पहले हज़रत आदम ने काबे का निर्माण किया। हज़रत आदम द्वारा बनायी गयी काबे की इमारत के ख़राब होने के बाद उसी स्थान पर हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे हज़रत इस्माईल की मदद से दूसरी बार काबा बनाया। पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी के एलान से पहले क़ुरैश क़बीले वालों ने पैग़म्बरे इस्लाम के निर्देश व सहयोग से काबे की पहली वाली इमारत के आधार पर दुबारा काबा बनाया। उस समय से अब तक मस्जिदुल हराम की अनेक बार इमारत बनी और इसका दायरा विकसित हुआ और विकास की यह प्रक्रिया जारी है। अलबत्ता यह बिन्दु भी अहम है कि काबे की महानता उसकी सादगी में है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इस समय जिनके हाथ में काबे की देखभाल है उन्होंने ज़रूरत से ज़्यादा निर्माण कार्य किया है जिससे लगता है मस्जिदुल हराम का आत्मिक माहौल कम हो गया है। इस वक़्त मस्जिदुल हराम के आस-पास इतनी ज़्यादा बड़ी बड़ी इमारतें और स्वीमिंग पूल बन गए हैं कि अब यह स्थान पर्यटन स्थल लगने लगा है। हालांकि जहां भी कोई अहम धार्मिक या पुरातात्विक इमारत होती है उसके आस-पास उससे ऊंची इमारत बनाने की इजाज़त नहीं दी जाती।