आजादी की लड़ाई के दिनों में डा0 राममनोहर लोहिया स्वतंत्रता संग्राम के एक मतवाले सिपाही के रूप में जहां महात्मा गांधी के अनुयायी थे, वही वह पं0 जवाहर लाल नेहरू के प्रिय भी थे। आजादी के बाद कांग्रेस में न होने के कारण वह केन्द्र व राज्यों की सत्ता से दूर रहे। विरोधी दल के होने के कारण वह जनहितों के लिये निरन्तर संघर्ष करते रहे और सरकारों की आँख की किरकरी बने रहे। कुछ लोग उन्हें भारतीय राजनीति का विद्रोही चेहरा मानते हैं, जबकि कुछ लोगों के लिये वह केन्द्र सरकार के विरुद्ध ‘‘एन्ग्री मैन’’ रहे।
डा0 रामनोहर लोहिया निर्भीक विचारों वाले भयहीन वक्ता थे। संसद से लेकर सड़क तक उनके तर्कपूर्ण व्याख्यानों से देश का जनमत उनसे प्रभावित होता था तथा सरकार सचेत रहती थी। देश के बड़े से बड़े सत्ताधारियों से लेकर उद्योग व पूंजीपतियों तक लोगों को यह चिन्ता रहती थी कि उनके कृत्य कहीं डा0 लोहिया की नजर में न पड़ जायंे। किसी भी लोकतंत्र के लिये यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी, जहां लोगों में, चाहे वह राजा हो या प्रजा, यह डर हो कि उनके निर्णयों, कृत्यों व उनकी कार्य प्रणाली डा0 साहब के ‘सिम्बल’ बन गये थे। यही उनकी ताकत थी, कि लोग उन्हें सुनते थे, उनकी बातों पर विचार करते थे तथा उनसे भय भी लगता था कि वह किसी भी सरकार या व्यक्ति के बारे में भयमुक्त हो बेबाक अपनी बात कहेंगे।
आजादी के बाद 20 वर्षों तक डा0 लोहिया आम आदमी की बात, आम लोगों के मुद्दे और केन्द्र व राज्य सरकार के ऐसे कार्यों के विरुद्ध, जो जनहित में न होकर देश के औद्योगिक घरानों, पंूजीपतियों के हितों में उनके दबाव में रहे हों, के विरुद्ध जन-संघर्ष करते रहे। पं0 नेहरू व इन्दिरा गांधी भी उनकी आलोचनाओं की बराबर शिकार रहीं। यद्यपि यह दोनों लोग डा0 साहब का बेहद सम्मान करते थे, परन्तु उन्हें पता था कि वह डा0 साहब की रचनात्मक आलोचनाओं व तीखे हमलों से बच नहीं सकते। जीवन भर जिन मुद्दों को वह उठाते रहे, जिन विचारों को वह जीते रहे, वह मुद्दे आज के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक सन्दर्भों में कहां खड़े है। यह एक विचारणीय विषय है।
संसद या संसद के बाहर जब डा0 लोहिया सरकार, पूंजीपति या उद्योगपति के किसी मामले में गड़बड़ी देखते थे, वह तर्कपूर्ण आवाज उठाते थे। उनका प्रयास होता था, कि जांच हो, जवाबदेही तय हो तथा सुधार हो। आज के सन्दर्भों में कुछ भिन्न स्थिति देखने को मिलती है। आज के नेता मंडली ब्लैक मेलिंग तक जा सकती है। उन्हें गड़बड़ी की जांच व सुधार से ज्यादा सौदेबाजी में रुचि रहती है। यह बात सभी पर लागू तो नहीं होती है। लेकिन, चिन्ता की बात यह है कि यह रोग बढ़ता जा रहा है और राजनीति के दायरे के बाहर, ऐसे मामले पत्रकारिता व ट्रेड यूनियन में भी मिल जायेंगे। डा0 लोहिया ने भ्रष्टाचार विहीन सत्ता की बात कही थी। परन्तु आज सत्ता पर काबिज लोगांे ने क्या-क्या किया है? पंचायत से लेकर जिला परिषद तक, नगर पंचायत से नगर पालिका और नगर निगमों तक, राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार के कार्यालयों तक हर स्तर पर सुविधा शुल्क, कमीशन व रिश्वतखोरी का ही माहौल है। यदि डा0 लोहिया आज जीवित होते तो अपना माथा पीट रहे होते, सिर पटक रहे होते।
डा0 राममनोहर लोहिया आजाद भारत की सरकार को मूल्य वृद्धि पर संसद से सड़क तक चेतावनी देते थे और ‘‘दाम बांधो’’ आन्दोलन के प्रारम्भ करने वाले थे। आज सर्वत्र महंगाई का शोर है। गरीब, मजदूर व किसान का जीना दुश्वार है। यह महंगाई अनायास ही नहीं होती। शासन तंत्र पर हावी पूंजीपति व उद्योगपतियों की भी मंहगायी वृद्धि में अहम भूमिका होती है। वह अपने लाभार्थ नीतियों में उलटफेर कराने की ताकत रखते हैं। सत्ताधारियों व बड़े राजनैतिक दलों को चन्दे की अतुल राशि देने के बाद उन्हें मनमाने दाम बढ़ाने की छूट मिल जाती है। मूल्य नियंत्रण पर सरकारों की विफलता चिन्तनीय है। स्वयं सरकार करों को बढ़ाने, नये कर लगाने में कोई मापदंड नहीं अपनाती और न ही उसके जनसाधारण पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों की चिन्ता करती है। पहले सरकार बजट प्रस्तावों में ही सभी प्रकार के करों, सरचार्ज आदि प्रस्तावित करती थी। रेलवे में बढ़ोत्तरी न करने के बार-बार बजट प्रस्तावों पर वाह वाही लूटने वाले लालू के समय बजट सत्र समाप्त होते ही, एक वर्ष में कई बार मालगाड़ी में भाड़ा बढ़ाये जाने के परिपत्र जारी किये गये थे। राजनैतिक नैतिकता को ताक पर रख सरकार भी मूल्य वृद्धि में सहायक बन जाती है।
आज देश के वर्तमान माहौल में सरकार हो या उद्योगपति, छोटा व्यवसायी हो या बड़ा उन्हें मनमानी तरह से दाम बढ़ाने में न कोई हिचक है, और न कोई भय। इस प्रकार निजी क्षेत्र वाले तथा सरकार, दोनों ही डा0 लोहिया की ‘दाम बांधो’ नीति की पूरी तरह अवहेलना कर खिल्ली उड़ाते नजर आ रहे हैं।
डा0 राममनोहर लोहिया ने ‘जाति तोड़ो’ आन्दोलन चलाया था। मुझे याद है, जब डा0 साहब ने ‘जाति तोड़ो’ आन्दोलन चलाया था, उस समय के नौजवानों में मतवाले होकर जाति सूचक शब्द अपने नाम से हटाने की होड़ लग गयी थी। वर्तमान भारतीय राजनीति में सत्ताधारी पार्टियों के मतों का आधार ही ‘जाति’ पर आधारित वोट बैंक है। यूपी, बिहार व हरियाणा ही नहीं, देश के अनेक राज्यों में जातिगत आधार कुछ राजनीतिक दलों के अस्तित्व को बनाता और बचाता है। महत्वपूर्ण बात यह है, कि इन राजनैतिक दलों के शीर्ष नेता व्याख्यानों में जाति विहीन राजनैतिक संरचना की बात करते हैं और व्यवहार में ठीक इसके विपरीत कार्य करते हैं।
समाजवाद के सिद्धान्त पर राजनीति करने वाले डा0 लोहिया की आत्मा इस जातिवाद के तान्डव को देखकर धिक्कार कर रही होगी। इस बात से, वर्तमान समय के राजनेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता है। बस व्याख्यानों में डा0 लोहिया की जय जयकार करो, समाजवाद व लोकतंत्र की दुहाई दो और सत्ता पाने के अनैतिक ‘शार्ट कट’ अपनाते चलो। डा0 साहब ने आन्दोलनों को लोकतंत्र की आत्मा बताया था। आज के सन्दर्भ में विश्लेषण करें तो पायेंगे कि वर्तमान भौतिक सुविधावादी युग में सभी राजनैतिक दलों की जन समस्याओं व राष्ट्रीय मुद्दों पर आन्दोलनों से खासी दूरी हो गयी है। कहते हैं, न तो नेता को फुर्सत है और न ही कार्यकर्ताओं की फौज को। हाँ, प्रमुख राजनीतिक दल साधन सम्पन्न होने के कारण ‘रैली’ करने में तो सफल हो जाते हैं, ‘क्योंकि धन-बल का प्रयोग भीड़ जुटा पाने में समर्थ होता है। यहां तक कि सत्ता में जो पार्टी होती है, उसकी शक्ति प्रदर्शन रैली में पूरी सरकार व्यवस्था करती दिखायी पड़ती है।
गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद व रफी साहब जैसे सैकड़ों नेताओं के आवाहन पर जन-सैलाब देखने को मिलता था। डा0 लोहिया व राजनारायण जैसे नेतृत्व ने जन आन्दोलनों से जनता को जोड़ा। नेतृत्व पारदर्शी था, ईमानदार था, तो कार्यकर्ता भी मूल्यों के खातिर समर्पित था। आज नेता मंडली धनवान है। महंगी व लग्जरी कारों के काफिले वाली है। सम्पत्ति वाली है। फिर कार्यकर्ता ‘भूखे भजन’ क्यों करंे? दोषी कार्यकर्ता नहीं हैं, वरन् राजसी जीवन जी रहे यह राजनैतिक जन ही हैं, जिन्होने राजनीतिक मूल्यों की नयी परिभाषा लिख दी है। डा0 साहब की जीवन लीला जब समाप्त हुयी, तो उनके नाम से न तो सम्पत्ति थी और न ही बैंक बैलेन्स। यही कारण था कि जीने-मरने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज वह बना सके थे।
आज, एक बात और है। सदस्यता अभियान का ढंग बदल गया है। तब चार आनें, आठ आनें में राजनीतिक दलों की सदस्यता होती थी क्योंकि उनमें जनसेवा का भाव रहता था। गरीबी का दंश केवल जनता ही नहीं, नेता भी झेलते थे। डा0 लोहिया, मामा बालेश्वर, मधुलिमये, जार्ज फर्नांडिस सरीखे नेता इसका आज भी जीवंत उदाहरण हैं। लेकिन बदलते समय, परिवेश और राजनीतिक रंग में दलों की चंदा प्रक्रिया भी बदल गई। अब पार्टी की सदस्यता राजनीतिक दल धनउगाही का जरिया बन चुके हैं। एक मुस्त हजारों की राशि जमा कर नेताओं के घरों-आफिसों में ही फार्म भरे जाते हैं। राजनीतिक दलों को सदस्यों के चन्दे की दरकार नहीं है। उनके कोष तो ठेकेदारों व पंूजीपतियों के खजाने से भर जाते हैं। अब नेतृत्व स्वयं भी धनवाद है, पार्टी का खाता भरपूर है, कमी है तो बस समर्पित व निस्वार्थ भावना वाले ‘सेवा ही धर्म है’ को मानने वाले कार्यकर्ता समूह की।
डा0 राममनोहर लोहिया के विचारों, सिद्धान्तों व उनके संघर्षशील स्वरूप को मानने वाले दलों की डा0 साहब के दर्शन के प्रति प्रतिबद्धता का ढांेेग करने वाले, कथनी और करनी में अंतर रखने वाले और राजनैतिक दलों के नेताआंे की फौज सत्ता तो पा सकती है, परन्तुु उनके लिए नैतिक मूल्यों के धनी डा0 साहब का नाम लेना व उसके नाम की दुहाई देना भी बेमानी होगी।