मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे ,कर्बला,चर्च,इमामबाडे में उनको श्रद्धांजलि देने का सिलसिला जारी
इमामबाडे गुफरान मआब में उनकी कब्र फूलों से पटी, सुबह से लोगो का आने जाने का सिलसिला जारी
तहलका टुडे टीम
कुछ ऐसा ही है शिया धर्मगुरु मौलाना डॉ. कल्बे सादिक का दुनिया से रुखसत होने की बरसी में , उनकी मृत्यु बस एक इंसान का इंतकाल भर नहीं है बल्कि कई उन परंपराओं पर भी संकट छा जाना है जिनके वह बड़े पैरोकार थे। कारण, कोई दूसरा कल्बे सादिक लखनऊ में पैदा होना काफी मुश्किल जो दिखाई दे रहा है।
जो धर्मगुरु तो एक तबके का हो लेकिन सामाजिक सरोकारों व जिम्मेदारियों पर उसकी महारथ सभी को लुभाती हो। किसी को उसमें अपने लिए विरोध दिखता ही न हो।
यूं तो दुनिया में आने वाले हर शख्स को एक दिन जाना होता है लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, जिनका किसी वक्त भी जाना रुला देता है। यही लगता है कि अभी कुछ दिन और रुक जाते तो ठीक था।
लखनऊ ही नहीं बल्कि दुनिया भर में शिया धर्मगुरु के रूप में एक अलग पहचान रखने वाले मौलाना कल्बे सादिक़ पूरी ज़िंदगी शिक्षा को बढ़ावा देने और मुस्लिम समाज से रूढ़िवादी परंपराओं के ख़ात्मे के लिए कोशिश करते रहे.
साल 1939 में लखनऊ में जन्मे मौलाना कल्बे सादिक़ की प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई थी. लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद उच्च शिक्षा उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हासिल की. अलीगढ़ से ही उन्होंने एमए और पीएचडी की डिग्री हासिल की.
ऐसे ही थे मौलाना डॉ. कल्बे सादिक। नाम के मुताबिक ही आलीशान शख्सियत। नफासत व नजाकत के इस नवाबी शहर में जब भी कोई संकट आया तो सभी की निगाहें उनकी तरफ गई कि सादिक साहब जरूर कुछ न कुछ हल निकालेंगे। उन्होंने निकाला भी। वह चाहे शिया-सुन्नी विवाद का मामला हो या हिंदू-मुसलमानों का।
जिनकी पहचान इस्लाम के बड़े चेहरे के रूप में हो, उसके मेहमानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक केसी सुदर्शन और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता भी रहे हों तो उस शख्सियत की गहराई समझी जा सकती है। एक नहीं अनेक प्रसंग हैं, जब उन्होंने विदेशों में भारत की तारीफ की। मामला चाहे पाकिस्तान से हो या चीन से। मौलाना हमेशा मुल्क के अव्वल नंबर के पैरोकार बनकर सामने आए।
संवेदनशील मुद्दों पर बेबाक राय। असहमति के स्वर भी बुलंद करने में पीछे नहीं पर सलीके के साथ और संविधान के दायरे में। संवाद की बात हो तो किसी मंच को साझा करने से गुरेज नहीं।
दुनिया के इस्लामी मुल्कों में ही एक विद्वान के नाते सम्मान नहीं बल्कि इंग्लैंड व अमेरिका जैसे देशों में उन्हें सुनने वालों की भीड़ जो इस्लामी देश नहीं है, उनकी शख्सियत का कद बताने को पर्याप्त थे।
मुस्लिम धर्मगुरु होने के अलावा मौलाना कल्बे सादिक़ एक समाज सुधारक भी थे. शिक्षा को लेकर वे काफ़ी गंभीर रहे और लखनऊ में उन्होंने कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कराई.
उन्हें क़रीब से जानने वाले बताते हैं, “साल 1982 में मौलाना कल्बे सादिक़ ने तौहीद-उल मुसलमीन नाम से एक ट्रस्ट स्थापित किया और यूनिटी कॉलेज की नींव रखी. समाज को शिक्षित करने में उन्होंने बड़ी मेहनत की. शिक्षा और शिया-सुन्नी एकता पर मौलाना साहब ने बहुत काम किया था. वो पहले मौलाना थे जिन्होंने शिया-सुन्नी लोगों को एक साथ नमाज़ पढ़ाई.”
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस बताते हैं कि धर्मशास्त्र के साथ-साथ उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी हासिल की थी और उसमें पारंगत थे, जिसकी वजह से दुनिया भर में उन्हें लोग सुनते थे.
सिद्धार्थ कलहंस बताते हैं, “मौलाना साहब न सिर्फ़ मुस्लिम समाज में प्रगतिशीलता के पक्षधर थे, बल्कि इसके लिए उन्होंने काफ़ी काम भी किया. महिलाओं को नमाज़ पढ़ाने, तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ अभियान चलाने से लेकर गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल तक के लिए उन्होंने लोगों को प्रेरित किया.”
वो कहते हैं कि वैज्ञानिक युग में मौलाना कल्बे सादिक़ ऐन मौक़े पर चांद देख कर एलान करने की जगह रमज़ान की शुरुआत में ही ईद और बकरीद की तारीख़ों का एलान कर देते थे. हालांकि अपने इन विचारों के चलते कई बार उन्हें अपने समाज में ही विरोध का भी सामना करना पड़ा.
सिद्धार्थ कलहंस बताते हैं, “उनके प्रगतिशील विचारों की वजह से कई बार उन्हें मुस्लिम समुदाय के भीतर विरोध भी झेलना पड़ा. यही कारण है कि लखनऊ से लेकर दुनिया भर में उनकी इज़्ज़त तो बढ़ी लेकिन अपने ही समाज में उनकी स्वीकार्यता कम होती गई.”
मौलाना कल्बे सादिक़ ने बीमारी के बावजूद नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए का भी विरोध किया था. लखनऊ के घंटाघर में सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रही महिलाओं का उत्साह बढ़ाते हुए उन्होंने कहा था कि यह काला क़ानून है और इसे वापस लिया जाना चाहिए.