बेनी प्रसाद वर्मा (बेनी बाबू, 79) के छात्र जीवन (1958-60) की दो विशिष्टताएं रहीं| तब वे शिक्षा की दहलीज पर थे| प्रचलन यह था कि जनपदीय छात्र डिग्री कॉलेज में दाखिले की कोशिश ही करते थे| मगर पिछले सदी के पांचवें दशक के अन्त में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश कईयों ने शुरू किया| इस नये अभियान के हरावल दस्ते में बेनी प्रसाद वर्मा रहे| मैं तब एम. ए. कर रहा था जब बाराबंकी के ही प्रदीप यादव ने बेनी बाबू से मेरी भेंट कराई थी| छात्र प्रदीप के अग्रज स्व. रामसेवक यादव सोशलिस्ट पार्टी के सांसद थे| फिर आया उनका राजनीतिक चेतना वाला पहलू| तब लोहिया का आकर्षण युवा वर्ग के लिए बहुत था| हालांकि स्टूडेंट फेडरेशन (कम्युनिस्ट पार्टी) के प्रति कशिश भी छात्र वर्ग में थी| बेनी बाबू समाजवादी युवक सभा में शरीक हुए| तब मैं उस सभा की यूनिवर्सिटी कमेटी का सचिव था| प्रदेश सचिव जनेश्वर मिश्र थे| वर्मा जी से परिचय हुआ| यूनियन का चुनाव आया| मैं अध्यक्ष पद का प्रत्याशी था| बेनी बाबू की मदद मिली| किन्तु दो वर्ष बाद उनके जनपदीय (बाराबंकी) साथी श्यामलाल बाजपेयी (बाद में कांग्रेसी विधायक और मंत्री) को अध्यक्षीय निर्वाचन में जिताने में बेनी बाबू काफी कारगर रहे|अगले साल मैं मुम्बई चला गया| टाइम्स ऑफ़ इंडिया में नौकरी मिल गई| तो लखनऊ और युवक सभा के साथी छूट गये|
फिर करीब चालीस साल बाद संवाददाता बनकर लखनऊ लौटा| बेनी बाबू तबतक उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक हस्ताक्षर बन गये थे| हालाँकि रामनरेश यादव की जनता पार्टी काबीना (1977) में उन्हें शामिल नहीं किया गया| दो साल बाद वे मंत्री नियुक्त हुए| मगर संकट के बादल छा गये| जनता पार्टी टूट गयी| बाबू बनारसी दास के मुख्यमंत्रित्व में वे जेल मंत्री बने| तभी एक घटना हुई| जिसका उल्लेख वे कई बार मुझसे किया करते थे| नारायणपुर (देवरिया) में कथित पुलिसिया जुल्म हुआ था| ग्रामीण बालाओं के बलात्कार वाले आरोप के मुद्दे को स्थानीय विधायक (बाद में समाजवादी सांसद) मोहन सिंह ने विधान सभा में उठाया था| शतरूद्र प्रकाश इसके गवाह हैं| मकर संक्रांति (14 जनवरी 1980) का हादसा है| तबतक इंदिरा गाँधी दुबारा प्रधान मंत्री बन गयीं थीं| उसी बीच संजय गांघी का धुंआधार दौरा नारायणपुर का हुआ| भीषण भाषण था कि नारायणपुर की हर किशोरी बलात्कार की शिकार हुई है| हालाँकि तीन वर्ष बाद न्यायिक जांच ने उसे झूठ बताया| तब तक नारायणपुर से कोई भी बहू घर नहीं लाता था| संजय के बाद अगले पखवाड़े इंदिरा गाँधी ने दौरा किया| मैं रिपोर्टिंग के लिए नारायणपुर गया| प्रेस कांफ्रेंस में प्रश्न पूछा मैंने कि, “क्या राज्य की बनारसी दास सरकार (बेनी बाबू उसमें काबीना मंत्री थे) को आप (इंदिरा गाँधी) बर्खास्त करेंगीं?” प्रधान मंत्री का जवाब था , “क्या इस सरकार को सत्ता में टिके रहने का अधिकार है ?” लखनऊ आकर मैंने बेनी बाबू को फोन किया कि उनकी सरकार जल्दी ही बर्खास्त कर दी जाएगी| कारण मैंने बताया कि मेरा तीस वर्ष का अनुभव रहा कि जब भी इंदिरा गाँधी रिपोर्टर के सवाल का उत्तर प्रश्नवाचक शैली में देती हैं तो मतलब “हाँ” में होता है| यूं भी कोई भी महिला सीधे हाँ तो कभी कहती ही नहीं |
तब बड़ी बुद्धिमानी का काम बेनी बाबू ने किया कि सारी फाइलें निपटा दीं, समस्त निर्णय क्रियान्वित कर दिए| वे मेरी सूचना की उपादेयता कभी भूले नहीं| लेकिन एक वादा अधूरा रहा| उन्होंने मेरा सुझाव स्वीकारा था कि प्रदेश की जिस जिस जेल में डॉ. लोहिया कैद रहे वहाँ उस वार्ड या बैरेक में नामपट्ट लगाया जायेगा| यहीं बात मैंने पैंतीस साल बाद राजेन्द्र चौधरी से दोहरायी थी जब वे अखिलेश यादव काबीना में कारागार मंत्री थे| मगर बात बनी नहीं| लोहिया की स्मृति आज तक कहीं भी अंकित न हो पायी|
बेनी बाबू का एक बड़ा उपकार मुझपर हैं| वे तब केंद्र की देवेगौड़ा काबीना में संचार मंत्री थे| मेरे पिता सांसद, संपादक (नेशनल हेराल्ड) और स्वाधीनता सेनानी स्व. श्री के रामा राव की जन्मशती 9 नवम्बर 1997 के दिन थी | डाक टिकेट प्रकाशित कराना था| हालाँकि नियमानुसार आवेदन की अवधि समाप्त हो गई थी| फिर भी संचार मंत्री ने विशेष तौर पर “के. रामा राव स्मृति टिकट” वितरित कराया| समारोह हुआ था दिल्ली के अशोक मार्ग पर निर्मित आंध्र प्रदेश भवन में| इसमें उपराष्ट्रपति स्व. कृष्ण कान्त और मेरे ममेरे भाई डॉ. जीवीजी कृष्ण मूर्ति, निर्वाचन आयुक्त, अतिथि थे| भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा ने स्मृति भाषण दिया| मेरे अग्रज ज्योतिषाचार्य डॉ. के. एन. राव IA&AS (Retd.) ने अध्यक्षता की थी| बेनी बाबू अंतिम दौर में राहु-ग्रस्त रहे| ठाकुर अमर सिंह ने दो समाजवादी साथियों (मुलायम सिंह यादव और बेनी बाबू) को अलग कर डाला था| वर्मा सोनिया कांग्रेस में चले गये| इस्पात मंत्री बने| फिर फ़िल्मी तामझाम और धन्नाशाहों के बूते अमर सिंह ने समाजवाद को विवस्त्र और विचारशून्य कर डाला|
डॉ. लोहिया बताते थे कि कार्ल मार्क्स एक ऋषि थे| उनके पथ से स्खलित हो कर कम्युनिस्ट पापी हो गये| गाँधी जी महात्मा थे जिनके मार्ग से पतित होकर कांग्रेसी ढोंगी बन गये| अब त्रासदी हो गई है कि लोहिया के सपनों वाला सोशलिस्ट आन्दोलन फ़िल्मी प्रपंच और धन-पशुओं के कल्मष की मिलावट हो गया है|
K Vikram Rao
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