
तहलका टुडे टीम
साहित्य जगत में बहुत ही इज्जत और एहतराम कमाने वाले 97 वर्षीय अजमल सुल्तानपुरी ने बुधवार की शाम करीब साढ़े सात बजे दुनिया को अलविदा कह दिया। खैराबाद स्थित अपने आवास पर उन्होंने अंतिम सांस ली। ‘कहां है मेरा हिन्दुस्तान’ उनकी सबसे मशहूर नज़्म है। उन्होंने समाज की विसंगतियों से जीवनभर संघर्ष किया। उनकी गजलों ने देश में अलग ही शोहरत दिलाई।
बीते छह जनवरी को वयोवृद्ध शायर अजमल सुल्तानपुरी को शहर के करुणाश्रय अस्पताल में भर्ती कराया गया था। कोमा में चले जाने के बाद उन्हें डाक्टर की सलाह पर परिवार के बीच घर ले जाया गया। बुधवार की शाम करीब साढ़े सात बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। उप्र उर्दू अकादमी की ओर से लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजे गए अजमल सुल्तानपुरी होश संभालने से आज तक अपनी आर्थिक जीवन स्थितियों, समय और समाज की विसंगतियों से निरंतर संघर्ष करते रहे। इनके गीतों में भारत की साझा संस्कृति और अवधी बोली बनीबानी का स्वर सुनाई पड़ता है। इनकी नज्मों में जीवन धड़कता सुनाई पड़ता है।
अजमल साहब का जीवन परिचय
अजमल शहर से करीब 14 किलोमीटर दूर कुड़वार बाजार के पास स्थित हरखपुर गांव के मूल निवासी थे। 1923 में उनका एक साधारण परिवार में जन्म हुआ। 1967 में गांव की कुछ सामाजिक बुराइयों का विरोध करने पर करीब 30-35 लोगों ने उनकी पिटाई कर दी थी। उन्हें मरा समझकर फेंक दिया गया था। पुलिस ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया। इसके बाद परिवार व रिश्तेदारों की मदद से किसी तरह उनका इलाज सुल्तानपुर से लेकर मुंबई तक हुआ। इसके बाद वे शहर के खैदाबाद मोहल्ले में आकर बस गए। 1967 के बाद वे कभी भी अपने गांव वापस नहीं लौटे। जबकि, उनके पैतृक संपत्ति पर आज भी बेटा व बेटियों का परिवार फल फूल रहा है। उनके दो बेटे और इतने ही बेटियां हैं। आज उनके नाती-पोते हो गए हैं।
देश विदेश में कमाया नाम
अदब के शायर अजमल सुल्तानपुरी ने अपनी रचनाओं के दम पर देश-विदेश में बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों की शोभा बढ़ाई है। वे देश के कई स्थानों के साथ ही दुबई, सऊदिया, कुवैद में कवि सम्मेलन का हिस्सा बन चुके थे। अमेरिका और पाकिस्तान नहीं गए हैं। उन्होंने पाकिस्तान से कवि सम्मेलन का आफर यह कहकर ठुकरा दिया था कि जब पाकिस्तान हमसे अलग हो गया है तो मैं वहां कैसे जा सकता हूं।
जो जिया वही लिखा
शायर अजमल सुलतानपुरी की शायरी में कोई बनावटी पन नहीं था। उनकी शायरी में आत्म पीड़ा की ही नहीं पूरी दुनिया की पीड़ा झलकती है।
फिल्मों का आफर ठुकराया
उन्हें मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री से कई आफर आए थे। एक बार कुछ लोग घर पर भी आए। उन्होंने यह कहकर आफर ठुकरा दिया था कि हमारी ही बहू बेटियां फिल्मों में मेरे ही गीत पर नाचेंगी गाएंगी यह मुझे मंजूर नहीं है। वैसे तो मुशायरों व अन्य मंचों पर अजमल साहब को कई पुरस्कार मिल चुका है पर सरकार को उनकी रचनाधर्मिता को परखने में लंबा समय लग गया। हालांकि, इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था। करीब छह साल पहले उन्हें उप्र उर्दू अकादमी की ओर से लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया था।
उनकी मशहूर नज़्म
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ -अजमल सुल्तानपुरी »
मुसलमाँ और हिन्दू की जान
कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मेरे बचपन का हिन्दुस्तान
न बंगलादेश न पाकिस्तान
मेरी आशा मेरा अरमान
वो पूरा पूरा हिन्दुस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो मेरा बचपन वो स्कूल
वो कच्ची सड़कें उड़ती धूल
लहकते बाग़ महकते फूल
वो मेरे खेत मेरा खलियान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो उर्दू ग़ज़लें, हिन्दी गीत
कहीं वो प्यार कहीं वो प्रीत
पहाड़ी झरनों के संगीत
देहाती लहरा पुरबी तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
जहाँ के कृष्ण जहाँ के राम
जहाँ की शाम सलोनी शाम
जहाँ की सुबह बनारस धाम
जहाँ भगवान करें स्नान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
जहाँ थे तुलसी और कबीर
जायसी जैसे पीर फ़क़ीर
जहाँ थे मोमिन ग़ालिब मीर
जहाँ थे रहमन और रसखा़न
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो मेरे पुरखों की जागीर
कराची लाहौर औ कश्मीर
वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर
वो पूरा-पूरा हिन्दुस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
जहाँ की पाक पवित्र ज़मीन
जहाँ की मिट्टी ख़ुल्द-नशीन
जहाँ महराज मोईनुद्दीन
ग़रीब-नवाज़ हिन्द सुल्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मुझे है वो लीडर तस्लीम
जो दे यक-जेहती की तालीम
मिटा कर कुम्बों की तक़्सीम
जो कर दे हर क़ालिब एक जान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
ये भूखा शायर प्यासा कवि
सिसकता चाँद सुलगता रवि
हो जिस मुद्रा में ऐसी छवि
करा दे अजमल को जलपान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मुसलमाँ और हिन्दू की जान
कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ