सुहैल वहीद
जो लोग इस्लाम की इब्तिदाई तारीख़ और उसके बुनियादी स्वरूप से वाकिफ हैं, वो मौलाना कल्बे सादिक़ की मज़हबी शख्सियत को बतौर एक रिफार्मर के रूप में जरूर याद रखेंगे।
शायद ही कोई ऐसा मैलाना मुसलमानों (सुन्नियों या शियों) में हो जैसे कल्बे सादिक़ थे, जिन्होंने हमेशा मज़हब के साथ उस दौर के आधुनिक पक्ष को भी पेश ही नहीं किया बल्कि खुद उसे लागू भी किया।
चांद निकलने, उसे देख कर ईद मनाने पर पंद्रह बीस साल पहले तक बड़ा विवाद हुआ करता था। दो तीन ईद हुआ करती थीं। कहीं चांद दिखता था, तो कहीं नहीं दिखता था। जहां दिखता था, वहीं ईद होती थी। मौलाना कल्बे सादिक़ ने ही चांद निकलने की तारीख़ का पहले से ऐलान करना शुरु कर दिया। पंचांग (जंतरी) के हिसाब से उन्होंने चांद नमूदार होने की तारीख़ घोषित करना शुरु की तो एक तबके को नागवार गुज़रा, उसने मुखालफत भी की।
लेकिन धीरे धीरे सभी ने कल्बे सादिक़ साहब के इस साइंटिफिक एप्रोच की दिल ही दिल में तारीफ भी की। इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले काफी सालों से ईद की तारीख़ को लेकर चपक़लिश तकरीबन खत्म हो चुकी है।
इसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ मौलाना कल्बे सादिक़ को जाता है। वो अपनी तक़रीरों में हमेशा तालीम हासिल कर एक्सेलेंस पैदा करने के जतन करने पर बहुत ज़ोर देते थे। वो जितना आधुनिक और साइंटिफिक सोचते थे, उसका थोड़ा सा हिस्सा भी अपना लिया जाए तो मुसलमानों में काफी कुछ बदल जाए। खुद के हाथ में भी हमेशा कोई न कोई किताब रहती थी। जैसे ही मौक़ा मिलता, पढ़ने लगते थे। हमें याद नहीं आ रहा है कि उन्होंने कभी कोई ऐसी मज़हबी तकरीर की हो जिसमें तालीम हासिल करने की तबलीग़ शामिल न हो।
हमेशा मुसलमानों की तालीम के ज़रिए तरक्की की बात करते थे। हमें उनसे कई बार गुफ्तगू का मौक़ा मिला, हमेशा बड़े खुलूस से मिले, जिस मौज़ू पर कहा, उन्होंने बात की। इंटरव्यू रिकार्ड कराया। दूसरे मौलाना लोगों की तरह वह रूखे क़तई नहीं थे। बहुत खुश एख़लाक़। हमेशा बेहद ठंडा पानी पीते थे, एकदम चिल्ड, सर्दियों में भी इतना ठंडा कि देखकर झुरझुरी आ जाए।
हमें फख्र है कि हमें उनके दौर के लखनऊ में रहने का मौक़ा मयस्सर आया। लखनऊ आज अपनी बेहद अज़ीज़ नुमइंदगी से महरूम हो गया। लखनऊ की नुमाइंदा शख्सियत थे वो, जिसमें वह लखनऊ बसता था, जिसके लिए पूरी दुनिया में लखनऊ की शोहरत है। लखनवी होने पर कम गुमान नहीं था उन्हें, ख़ूब खुश होते थे लखनवी होने पर। उनकी ज़ुबान से जो अल्फाज़ अदा होते थे, वही है अस्ल लखनऊ की ज़बान।
सन 1991 था, पटना में पर्सनल लॉ बोर्ड के जलसे में तक़रीर शुरु की तो कुछ देर लखनऊ की तहज़ीब पर ही बोलते रहे। तक़रीर खत्म हुई तो चार पांच मिनट तक तालियां बजती रहीं। उनके अंदाज़े बयान पर सब झूम झूम गए। वह जिस लखनऊ को जीते थे, उसी को गंगा जमुनी तहज़ीब कहते हैं।