वक्त बदलता है तो रीति-रिवाज बदलते हैं. रहन-सहन के तरीके बदलते हैं. खान-पान से लेकर पहनावे तक बदल जाते हैं. वक्त के साथ बदल जाने की फितरत अगर डेवलप नहीं हो पाती तो शायद समाज जहाँ का तहां रुक गया होता. रूखेपन की जगह इतनी चमक-दमक का शायद कोई ख़्वाब भी नहीं देख पाता.
तरक्की का जो नया नजरिया है उसमें पहनावा, गाड़ी और दोस्तों के स्टेटस से औकात का पता लगाया जाता है. बहुत से लोग अपनी औकात को जताने और बताने के लिए बड़े होटलों में बड़ी पार्टियाँ करते हैं. साल-छह महीने में गाड़ी बदल देते हैं. यह सब दिखाकर वह आम लोगों से ऊपर वाली लाइन में खड़े हो जाते हैं.
ज़िन्दा रहने के लिए कुछ चीज़ें हर इंसान के लिए ज़रूरी होती हैं. दोनों वक्त का खाना, रहने को छत और फैमिली की ज़रूरतों को पूरा कर सकने भर का पैसों का इंतजाम हो जाए तो फिर एक चीज़ की और ज़रुरत होती है, उसे मनोरंजन कहते हैं. मनोरंजन उस टानिक का नाम है जो ज़िन्दगी की गाड़ी के पहियों को लुब्रीकेशन देने का काम करता है.
वक्त के साथ जैसे खान-पान बदला, पहनावा बदला, बातचीत का तरीका बदला, पसंद और नापसंद बदली वैसे ही मनोरंजन के तरीके भी बदले. दौर पुराना था तब बड़े लोग मनोरंजन के लिए मुर्गे लड़ाया करते थे, आज टीवी पर डिबेट कराने लगे हैं. पिछले दस-बारह सालों में टीवी डिबेट पर सिलसिलेवार नज़र दौड़ाएं तो अब हम बिलकुल उसी चौराहे पर पहुँच गए हैं जहाँ मुर्गे एक दूसरे पर बढ़-बढ़कर हमले करते हैं और भीड़ तालियाँ बजाती है.
टीवी डिबेट में पक्ष और विपक्ष आमने-सामने बैठकर एक दूसरे की बुराइयां करते हैं. थोड़ी ही देर में ज़बानी जंग की परवाज़ तेज़ हो जाती है. कई बार यह परवाज़ टकराव की तरफ मुड़ जाती है और बात ज़बान से हाथापाई तक पहुँच जाती है. टीवी देख रहे लोग मारपीट और पढ़े-लिखों की लाइव जिहालत देखकर तालियाँ बजाते हैं.
25 साल पहले जब जर्नलिज्म की फील्ड में क़दम रखा था तब हुकूमत की तारीफ़ में लिखने वाले को शक की नज़र से देखा जाता था. तब खिलाफ लिखने वालों की इज्ज़त हुआ करती थी. जिन अफसरों और मंत्रियों के खिलाफ लिखा जाता था वही सामने देखकर कुर्सी छोड़कर उठ जाया करते थे.
अब 25 साल बाद हालात बदल गए हैं. अब हुकूमत की खुशी के लिए लिखने वालों की इज्ज़त होने लगी है. हुकूमतें अखबार और चैनलों का मालिकाना हक हासिल करने की जुगत में लगी हैं. जो भी बड़े चैनल और अखबार हैं उनका मालिकाना हक हुकूमत के पास है. वहां काम करने वाले हुकूमत से सैलरी लेते हैं. ज़ाहिर है कि उनकी भाषा हुकूमत वाली हो गई है.
मुर्गा लड़ाई का शौक कभी ऐसे रास्ते की तरफ बढ़ेगा कि डेमोक्रेसी के चौथे खम्बे में दरार डाल देगा किसी ने सोचा भी न होगा. टीवी चैनलों की स्क्रीन पर जो दिखता है उस पर आम लोगों का बड़ा भरोसा होता है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि डिबेट में ज़ख़्मी मुर्गे की तरह एक दूसरे पर हमला करने वाले हकीकी ज़िन्दगी में अच्छे ताल्लुकात रखते हैं. वह डिबेट से पहले भी साथ में चाय पीते हैं और बाद में भी चाय पीकर आपस में हाथ मिलाकर अपने-अपने रास्ते पर बढ़ जाते हैं. भीड़ नहीं जानती कि स्क्रीन पर देखी गई लड़ाई फ़िल्मी पटकथा सी फर्जी थी. एक दूसरे पर मुक्का ताने लोग आपस में गहरे दोस्त थे.
टीवी का छोटा पर्दा भीड़ को डिबेट के बहाने जो छोटा झूठ दिखाता है, उसी को बड़े रूप में देखा जाए तो समाज की मौजूदा तस्वीर तैयार हो जाती है. एक दूसरे को बेईमान, झूठा, फरेबी और साम्प्रदायिक कहने वाले अपनी पर्सनल ज़िन्दगी में साथ में खड़े होते हैं. जो एक दूसरे को मज़हब के नाम पर उल्टा-सीधा बोलते हैं वह जब मिलते हैं तो गले मिलते हैं. साथ में खाना खाते हैं. सत्ता पर काबिज़ विपक्ष के किसी काम को रोकता नहीं है. जहाँ मदद हो सकती है वह करता है.
सियासत के पास खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं लेकिन यह बात जब तक समझ आती है तब तक नदी का वह सारा पानी बह चुका होता है जो पीने लायक था.
चुनावी चौसर भी अब खतरनाक होने लगी है. चुनावी चौसर पर खड़े मुर्गे एक दूसरे को खा जाने पर आमादा नज़र आते हैं. कई बार वह हार की तरफ बढ़ते हैं तो चौसर को ही फाड़ डालने को आमादा हो जाते हैं. मजहबी खून में गले तक डूबे मुर्गे फिर निकल चुके हैं घरों से. इस बार उनके पाँव ज़मीं पर नहीं एयर पर हैं. एयर में अटैक के दावे हैं. बाक़ी मुर्गे एयर अटैक के सबूत मांग रहे हैं. इन दावों और सबूतों की गूँज डेमोक्रेसी के सीने पर सवार होती नज़र आ रही है. पिछली बार डेमोक्रेसी के चौथे खम्भे पर अटैक हुआ था, इस बार पहला खम्भा निशाने पर है.
कई दिन से सोच रहा हूँ कि पुराने दौर के लोग मुर्गा लड़ाकर सिर्फ मनोरंजन करते थे लेकिन आज के लोग मुर्गे लड़ाकर मनोरंजन भी करते हैं लेकिन उनका असल मकसद रिश्तों को पर्सनल से प्रोफेशनल में बदल देना है. डर लगता है कि प्रोफेशनल चोंच जब पर्सनल जिस्म पर चोट करेगी तब डेमोक्रेसी के साथ-साथ क्या-क्या दरक जायेगा.