19 रमज़ान की रात थी।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के दामाद और उत्तराधिकारी हज़रत अली अलैहिस्सलाम, कि जो न्याय व सत्यप्रेम की मूर्ति थे, रमज़ान की हर रात की तरह इफ़्तार के लिए अपनी किसी संतान के घर जा रहे थे। वे रमज़ान में हर रात इफ़्तार के लिए अपने किसी न किसी बेटे या बेटी के घर जाया करते थे और उस रात उन्हें अपनी छोटी बेटी हज़रत उम्मे कुलसूम के घर जाना था।
इफ़्तार के समय उन्हों ने सिर्फ़ तीन निवालो खाना खाया और फिर उपासना में लीन हो गए। वे उस रात सुबह तक व्याकुल रहे। हर थोड़े समय बाद आकाश और सितारों को देखते और जैसे जैसे भोर का समय निकट आता जा रहा था उनकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। वे बार बार कह रहे थे कि न तो मैं झूठ बोल रहा हूं और न जिसने मुझे सूचना दी है, उसने झूठ कहा है, मुझसे शहादत के लिए जिस रात का वादा किया गया था, वह यही रात है।
अंततः वह रात ख़त्म हुई और हज़रत अली भोर के अंधकार में फ़ज्र की नमाज़ के लिए मस्जिद की ओर बढ़े। घर में पली हुई बत्तख़ें उनके पीछे पीछे चलने लगीं और उनके कपड़ों से लिपट गईं। घर वालों ने उन्हें हटाना चाहा लेकिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि इन्हें इनकी स्थिति पर छोड़ दो। ये अभी चिल्ला रही हैं लेकिन जल्द ही विलाप करेंगी।
इसके बाद वे मस्जिद में पहुंचे और नमाज़ के लिए ख़ड़े हुए। जब वे सज्दे में गए तो इब्ने मुल्जिम नामक व्यक्ति ने विष भरी तलवार से उनके सिर पर एक वार किया। इस वार से उनका सिर माथे तक फट गया और उससे ख़ून फ़व्वारे की तरह निकलने लगा। उसी स्थिति में उनके पवित्र मुख से यह वाक्य निकलाः “काबे के पालनहार की सौगंध! मैं सफल हो गया।“ लोगों ने देखा कि उनके सिर का ख़ून उनकी दाढ़ी से बह रहा है और वह पूरी लाल हो चुकी है। उसी स्थिति में उन्होंने कहाः यह वही वादा है जो ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने मुझसे किया है।
जब ज़मीन और आसमान हिलने लगे और ईश्वर के फ़रिश्ते जिब्रईल की आवाज़ पूरी दुनिया में गूंजी तो कूफ़े के लोगों को पता चला कि मस्जिद में हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर हमला किया गया है। हज़रत अली के दोनों बेटे इमाम हसन व इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम बड़े तेज़ी से उनके पास पहुंचे। कुछ लोग हज़रत अली को उठाना चाह रहे थे ताकि वे नमाज़ पूरी करें लेकिन उनमें खड़े होने की शक्ति नहीं रह गई थी। उन्होंने बैठ कर नमाज़ पूरी की और घहरे घाव तथा विष के प्रभाव के कारण बेसुध हो गए। उन्हें एक मोटी चादर में रखा गया और उनके दोनों बेटे उस चादर को पकड़ कर उन्हें घर लाए।
इब्ने मुल्जिम को इमाम अली अलैहिस्सलाम के पास लाया गया। उन्होंने उसका चेहरा देखा और पूछा क्या मैं तूझ पर बुरा नेता था? यह जानने के बावजूद कि तू मेरी हत्या करेगा क्या मैंने तेरे साथ उपकार नहीं किया? मैं चाहता था कि अपनी भलाई द्वारा तुझे इस संसार का सबसे दुर्भागी व्यक्ति न बनने दूं और तुझे पथभ्रष्टता से निकाल दूं। इब्ने मुल्जिम रोने लगा। हज़रत अली ने अपने बेटे इमाम हसन से कहा कि हे पुत्र! इसके साथ भला व्यवहार करो, क्या तुम नहीं देख रहे हो कि इसकी आंखों से कितना भय झलक रहा है। इमाम हसन ने कहा कि पिता जी इसने आप पर तलवार का वार किया है और आप कह रहे हैं कि इसके साथ भला व्यवहार करूं? इमाम ने कहाः हम पैग़म्बरे इस्लाम के घर वाले दयालु हैं। उसे अपना खाना और दूध दो। अगर मैं दुनिया से चला गया तो उससे मौत का बदला लेना या क्षमा कर देना तुम्हारा अधिकार होगा और अगर मैं जीवित रहा तो फिर मुझे पता है कि उसके साथ क्या करना है और मैं क्षमा करने को प्राथमिकता देता हूं।
वह शबे क़द्र की रातों में से एक थी और उसी रात एक योग्य नेता, न्यायप्रेमी इमाम, सत्यप्रेमी उत्तराधिकारी, अनाथों से प्यार करने वाले शासक, ईश्वर के निर्वाचित बंदे और पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी को धरती के सबसे दुर्भागी व क्रूर व्यक्ति इब्ने मुल्जिम ने अपनी तलवार के वार से शहादत के निकट पहुंचा दिया। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के शब्दों में वे ऐसे ईश्वरीय नेता थे जो जन्म से शहादत के क्षण तक एक अद्वितीय हस्ती थे। उनका जन्म मुसलमानों के पवित्र स्थल काबे के अंदर हुआ और ऐसी घटना न तो उनसे पहले कभी हुई और न ही उनके बाद हुई। उनकी शहादत भी मस्जिद में उपासना के दौरान हुई। इन दोनों बिंदुओं के बीच हज़रत अली अलैहिस्सलाम का पूरा जीवन ईश्वर के लिए संयम व जेहाद है, दूरदर्शिता व ईश्वरीय पहचान है और ईश्वर की प्रसन्नता के मार्ग पर आगे बढ़ना है।रमज़ान की बीसवीं तारीख़ की सुबह लोग हज़रत अली अलैहिस्सलाम को देखने के लिए पहुंचे। यह वहीं दिन था जब कूफ़े के अनाथ बच्चों ने एक लम्बी अवधि के बाद उस दयालु व कृपालु व्यक्ति को पहचाना जो हर रात अज्ञात तरीक़े से उनके घर पहुंचता था और उनकी सहायता करता था। हज़रत अली के एक बेटे मुहम्मद इब्ने हनफ़िया कहते हैं। लोग घर में आते थे और मेरे पिता को सलाम करते थे। वे सलाम का जवाब देते थे और कहते थे कि मुझ से पूछ लो, इससे पहले कि मैं तुम्हारे बीच न रहूं, लेकिन तुम्हारे इमाम को जो घाव लगा है उसके चलते अपने प्रश्नों को संक्षिप्त करो। उनके यह कहते ही लोग फूट फूट कर रोने लगते।
क़द्र की रात या शबे क़द्र, इस्लाम में पवित्र मानी जाने वाली रातों में से एक है। ईश्वर ने क़ुरआने मजीद में इसे एक हज़ार रातों से बेहतर बताया है और क़द्र के नाम से एक पूरा सूरा मौजूद है। पूरे साल में शबे क़द्र से बढ़ कर कोई रात नहीं है। यह क़ुरआने मजीद के नाज़िल होने और फ़रिश्तों के ज़मीन पर आने की रात है। शबे क़द्र में उपासना, एक हज़ार महीने की उपासना से बेहतर है। इसी रात मनुष्य के पूरे एक साल की रोज़ी, आयु और अन्य बातें निर्धारित होती हैं। इस रात में क़ुरआने मजीद की तिलावत, दुआ और रात भर जाग कर इबादत करने की बहुत अधिक सिफ़ारिश की गई है। पैग़म्बरे इस्लाम ने शबे क़द्र के बारे में कहा हैः रमज़ान सभी महीनों का सरदार है और शबे क़द्र सभी रातों में श्रेष्ठ है।
शबे क़द्र, दुआ व उपासना के वातावरण में उड़ान का चरम बिंदु और बंदों पर ईश्वर की दया की चरम सीमा है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस रात और पवित्र रमज़ान की सभी रातों में लोगों को खाना खिलाया करते थे और उन्हें उपदेश देते थे। इतिहास में है कि वे रमज़ान में हमेशा लोगों को इफ़्तार और रात का खाना देते थे और प्रायः खाने में मांस होता था लेकिन वे स्वयं वह खाना नहीं खाते थे। जब लोग खाना खा लेते तो वे उन्हें उपदेश दिया करते थे। वे कहते थेः हे लोगो! जान लो कि तुम्हारे कामों की कसौटी धर्म है, तुम्हें बचाने वाला, ईश्वर का भय है, तुम्हारा श्रृंगार, शिष्टाचार है और तुम्हारे सम्मान की रक्षा का दुर्ग विनम्रता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए रात और रात में उपासना का विशेष महत्व था। जब हर जगह रात का अंधेरा फैल जाता था और संसार मौन धारण कर लेता था तो वे जागते और ईश्वर की उपासना में लीन हो जाते थे। क़द्र की रातों में उनकी स्थिति भिन्न होती थी और इन रातों में वे एक क्षण के लिए भी नहीं सोते थे और मस्जिद में जा कर रात भर उपासना करते और अपने पालनहार से प्रार्थनाएं किया करते थे।
कहा जा सकता है कि शबे क़द्र अपने दयावान रचयिता के समक्ष रोने, गिड़गिड़ाने और उससे प्रार्थनाएं करने की रात है। इस रात हम ख़ुद अपना हिसाब-किताब करते हैं और अपने पापों के लिए ईश्वर से क्षमा मांगते हैं और उसकी दया व कृपा के सोते से अपने दूषित अस्तित्व को पवित्र करने का प्रयास करते हैं। तौबा व प्रायश्चित के वादे के साथ हमारा प्रयास होता है कि अपने लिए, अगले एक साल के लिए अच्छी से अच्छी बातों का निर्धारण करें।
अगर ईश्वर ने मनुष्य के लिए दुआ व प्रार्थना का साधन न रखा होता तो कोई भी चीज़ ईश्वर से निश्चेत इंसान के टूटे हुए रिश्ते को बेहतर नहीं बना सकती थी। कितने ही लोग हैं जो अपनी बुरी स्थिति के बावजूद दुआ, उपासना और प्रार्थना के माध्यम से ईश्वर की चौखट तक पहुंच गए और उसकी सही पहचान द्वारा उन्होंने उसे हमेशा के लिए अपने दिल में बसा लिया।