
तहलका टुडे डेस्क
नई दिल्ली-एमडीएच मसाले कंपनी की स्थापना करने वाले महाशय धर्मपाल गुलाटी का निधन हो गया है. वो 98 साल के थे.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार गुरुवार सुबह उन्हें दिल का दौरा पड़ा था जिसके उनकी मौत हो गई. बीते तीन सप्ताह से वो अस्पताल में भर्ती थे.
भारत में एमडीएच मसालों के विज्ञापनों और डिब्बों पर उनकी तस्वीर की वजह से उन्हें काफ़ी पहचान मिली थी.
एमडीएच मसाले कंपनी का नाम उनके पिता के काराबोर पर आधारित है. उनके पिता ‘महशियान दी हट्टी’ के नाम से मसालों का कारोबार करते थे. हालांकि लोग उन्हें ‘देगी मिर्च वाले’ के नाम से भी जानते थे.
उन्हें व्यापार और वाणिज्य के लिए साल 2019 में भारत के दूसरे उच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से भी नवाज़ा गया था.
1947 में भारत आए, शरणार्थी शिविर में रहे
‘दादजी’, ‘मसाला किंग’, ‘किंग ऑफ स्पाइसेज’ और ‘महाशयजी’ के नाम से मशहूर धरमपाल गुलाटी का जन्म 1923 में पाकिस्तान के सियालकोट में हुआ था। स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाले धर्मपाल गुलाटी शुरुआती दिनों में अपने पिता के मसाले के व्यवसाय में शामिल हो गए थे। 1947 में विभाजन के बाद, धर्मपाल गुलाटी भारत आ गए और अमृतसर में एक शरणार्थी शिविर में रहे।
दिल्ली के करोल बाग में पहला खोला पहला स्टोर
फिर वह दिल्ली आ गए थे और दिल्ली के करोल बाग में एक स्टोर खोला। गुलाटी ने 1959 में आधिकारिक तौर पर कंपनी की स्थापना की थी। यह व्यवसाय केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया में भी फैल गया। इससे गुलाटी भारतीय मसालों के एक वितरक और निर्यातक बन गए।
वेतन का 90 फीसदी करते थे दान
गुलाटी की कंपनी ब्रिटेन, यूरोप, यूएई, कनाडा आदि सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भारतीय मसालों का निर्यात करती है। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया था। एमडीएच मसाला के अनुसार, धर्मपाल गुलाटी अपने वेतन की लगभग 90 प्रतिशत राशि दान करते थे।
2016 में उन्हें 21 करोड़ रुपये से अधिक सैलरी मिली थी जो गोदरेज कंज्यूमर के आदि गोदरेज और विवेक गंभीर, हिंदुस्तान युनिलीवर के संजीव मेहता और आईटीसी के वाईसी देवेश्वर से अधिक थी। महाशियां दी हट्टी की स्थापना (Mahashay Dharampal Gulati News) 1919 में पाकिस्तान के सियालकोट में हुई थी। आज इसकी 15 फैक्ट्रियां है जो देशभर में 1000 से अधिक डीलरों को सप्लाई करती हैं। कंपनी के ऑफिस दुबई और लंदन में भी हैं। कंपनी 60 से अधिक प्रोडक्ट बनाती है और 100 देशों को निर्यात करती है।
5 साल की उम्र में उनका स्कूल में दाखिला करवा दिया गया, लेकिन स्कूल में मन नहीं लगता था। पढ़ाई की बात आते ही कोई न कोई बहाने तलाशने लग जाते थे। जैसे-तैसे पांचवीं तक पढ़े। फिर उनके पिताजी ने अपनी मसाले की दुकान में काम के लिए लगा दिया। इस दौरान तजुर्बे के लिए कई और काम सीखे। उनकी दुकान खूब चलती थी। कुछ दिन रेहड़ी पर मेहंदी बेची।
दिल्ली में चलाया तांगा
देश विभाजन के दौरान उन्हें सियालकोट छोड़ना पड़ा, क्योंकि पूरा इलाका दंगे-फसाद की आग में बुरी तरह जलने लगा था। मार-काट के बीच जैसे तैसे अमृतसर पहुंचे और वहां अपने एक आढ़ती के यहां शरण ली। उनका वहां मन नहीं लगा। बड़े भाई धर्मवीर और एकाध रिश्तेदार के साथ दिल्ली चला आए। कुछ काम-धंधा न मिला तो तांगा चलाने लगे। इस दौरान पिता समेत पूरा परिवार दिल्ली आ गया। तांगे का काम छोड़कर तब उन्होंने अजमल खां रोड पर गुड़-शक्कर का छाबा लगाया। उससे भी मन ऊब गया। मन मसालों के पुराने कारोबार के लिए प्रेरित करता था। फिर अजमल खां रोड पर खोखा बनाकर दाल, तेल, मसालों की दुकान शुरू कर दी। तजुर्बा था, इसलिए काम चल निकला।