
यहां उन ख़ुलूस से काम करने वालों की बात नहीं हो रही जो बेचारे सच्चे दिल के साथ कठिन हालात में मुल्क और क़ौम के लिए लगातार काम कर रहे हैं कि उनकी तादाद उंगलियों पर गिनी जा सकती है, बात उनकी है जो ढ़ोल का पोल हैं।बात ख़ुद की है बात अपनी है बात अपने उस क़लम की है जो चलता है तो न जाने कितनों के डर से ख़तरनाक वादी से बच बचा कर निकल जाता है बड़े बनने वाले बच्चों की नाराज़गी सहने की ताक़त नहीं और पंद्रह शाबान भी गुज़र गई…..
तहलका टुडे डेस्क /सैयद नजीबुल हसन ज़ैदी
लंबे समय से इस्लामिक महीना शाबान का इंतेज़ार था, न जाने कितनी बातें थीं न जाने कितने ख़्वाब थे, न जाने क्या क्या सोचा था, सारे अहद याद हैं जो हमने पिछले साल मौला से किए थे, सब कुछ याद है जो दिल के अरमान अरीज़े में लिख कर आक़ा के हवाले कर के सुकून से बैठे गए थे कि अब आने वाले शाबान में सब कुछ बदल जाएगा….
लेकिन अफ़सोस सब कुछ वैसा का वैसा ही है, एक बार फिर पंद्रह शाबान गुज़र गई और हम अपने वादों पर पूरा नहीं उतर सके।
ख़ैर इस बार तो हालात कुछ ऐसे रहे कि ज़ाहिरी तौर पर जो रस्में थीं वह भी अदा नहीं हो सकीं, घर में बैठे बैठे ही समय गुज़र गया, न किसी के घर जा सके न किसी को घर बुला सके, न जमकरान न अरीज़ा, न मस्जिद न हरम और न ही पड़ोसी क्योंकि हर घर और हर दरवाज़े पर मौत की आहट है।
अफ़सोस! मौत के डर से हम ज़िंदा लाश बने घरों में पड़े रहे और वह कुछ न कर सके जो इमाम का सिपाही होने के नाते करना चाहिए था हम कुछ नहीं कर सकते थे, ठीक माना कि घर से नहीं निकला जा सकता था लेकिन क्या हम अपने घर बैठ कर अपने दिल को अपने आक़ा के हवाले कर के इस तरह भी नहीं सोच सकते थे जैसे एक इंतेज़ार करने वाले को सोचना चाहिए?…..
अफ़सोस न हमने अपने समाज को लेकर कोई प्लानिंग की न देश के हालात के सिलसिले में दिमाग़ पर ज़ोर दिया कि क्या करना है अपने आप को, अपनी क़ौम को ज़ुल्म की चक्की के चलते पाटों से कैसे बचाना है…..
जो कुछ हुआ वह बस इतना कि कुछ आमाल थे वह कर लिए, कुछ ज़िक्र थे उन्हें ज़ुबान पर जारी कर लिया और यह सोच कर बैठ गए कि कोरोना की बीमारी में और हो भी क्या सकता है……
यूं एक अहम तारीख़ भी गुज़र गई।
काश ज़ालिम हाकिमों के इशारे पर अपने वजूद को चमकाने के बजाए किसी अंधेरे घर में चिराग़ जलाने के बारे में सोचते, तो यक़ीनन हमारे आक़ा ख़ुश होते लेकिन क्या करें कि हमारा वुजूद ही इतने अंधेरे में डूब गया कि हमें कुछ नज़र नहीं आता, हर शोले को रौशनी समझ कर उसकी तरफ़ भाग लेते हैं।
और जब दामन जला बैठते हैं तो एहसास होता है कि क्या किया, बल्कि कभी कभी तो न दामन जलने का एहसास होता है न ज़मीर जलने की बदबू को महसूस करते हैं।
कहते हैं कि कोरोना हो जाता है तो इंसान की सूंघने की शक्ति पर असर पड़ता है, शायद हम भी रूहानी कोरोना में गिरफ़्तार हैं जो न ज़मीर के जलने की बदबू को महसूस करते हैं न जल भुन कर राख हो जाने वाली ज़मीर की राख को देख पा रहे हैं, यही वजह है कि हम ज़ुहूर का माहौल पैदा करने के बजाए हम ऐसी फ़िज़ा बनाने में जुटे हैं जिससे और भी ज़्यादा देर हो।
कहीं लीडरशिप और कुर्सी की जंग में जंगली मुर्गों की तरह एक दूसरे को नोच कर ज़ालिम हुकूमतो को ख़ुश करने में लगे हैं तो कहीं मदरसों और इदारों पर क़ब्ज़ा जमा कर क़ौम की ख़िदमत का मेडल सीने पर सजाए अकड़े बैठे हैं कि हम से बड़ा कौन है?!
हम से ज़्यादा काम किसने किया? हम से ज़्यादा ख़िदमत किसने की?
बजाए इसके कि एक गहरी सोच लेकर क़ौमी लेवेल पर सोचते, इदारे की ऐनक लगा कर सब कुछ देख रहे हैं नतीजा यह कि बस वही लोग दिखते हैं जो हमारे वुजूद के इदारे को फ़ायदा पहुंचा सकें, वुजूद भी तो एक इदारा ही है उसकी भी तो ज़रूरतें हैं….!!
इदारा बनता है क़ौम के मामलात चलाने के लिए लेकिन अब ज़्यादातर वह हमें चला रहा है और इतना ही नहीं बल्कि अगर एक जगह चार लोग इकट्ठा हो जाते हैं तो एक नया इदारा खड़ा हो जाता है कि इसके बिना हमारे वुजूद का कोई मतलब ही नहीं यही वजह है कि क़ौम के पास इदारे ज़्यादा हैं लेकिन ख़िदमत की लिस्ट घटती जा रही है।
यहां उन ख़ुलूस से काम करने वालों की बात नहीं हो रही जो बेचारे सच्चे दिल के साथ कठिन हालात में मुल्क और क़ौम के लिए लगातार काम कर रहे हैं कि उनकी तादाद उंगलियों पर गिनी जा सकती है, बात उनकी है जो ढ़ोल का पोल हैं।
बात ख़ुद की है बात अपनी है बात अपने उस क़लम की है जो चलता है तो न जाने कितनों के डर से ख़तरनाक वादी से बच बचा कर निकल जाता है बड़े बनने वाले बच्चों की नाराज़गी सहने की ताक़त नहीं, ऐसे में समझ में नहीं आता हम उन जवानों को क्या जवाब दें जो कुछ करना चाहते हैं और हमारे पास उनकी रहनुमाई के लिए कुछ नहीं, आख़िर यह जवान कहां जाएं? किससे अपना दर्द बयान करें? अपने समाज में पेश होने वाले हालात पर क्यों चर्चा करें? लोगों को डाइरेक्शन तो अच्छी तरह पता है लेकिन उन्हें नहीं पता वह डाइरेक्शन कहां है जहां से अपने वुजूद में पाए जाने वाले अंधेरे को दूर किया जाता है, जहां अंधेरों में डूबी हुई रूह रौशनी से नहा जाती है, यही वजह है कि दिल के काबे और ज़िंदगी के मरकज़ को छोड़ कर हम इधर उधर भटक रहे हैं कहीं अपने वुजूद के इज़हार के लिए रिश्तों और संबंधों की सीढ़ी सर पर उठाए दर दर पर अपने सर झुका रहे हैं।
कहीं ज़ालिम हाकिमों की चौखटों पर सर झुकाए खड़े नज़र आते हैं तो कहीं राजनीतिक गलियारों में अपनी बोली लगवाते दिखाई देते हैं और इतना ही नहीं अगर बात दींदार लोगों की कि जाए तो यह लोग ज़ाहिर में दर्द रखते हैं और इनक़ेलाबी सोच रखते हैं तो वहां अपने अलग मामलात हैं जैसे कुछ लोगों का इनक़ेलाब पर क़ब्ज़ा है यहां हालत यह है कि कुछ ख़ास लोगों के अलावा कोई विलायते फ़क़ीह की बात करे तो उसे यूं देखा जाता है जैसे अभी MI6 ट्रेनिंग लेकर आया हो और विलायते फ़क़ीह का परचम लिए लोग आपस में यूं भिड़ते नज़र आते हैं जैसे यह नारों की जंग है जो जितना गला फाड़ेगा उतना ही सच्चा पैरवी करने वाला कहलाएगा, जितनी किसी की टांग खींची जाएगी उतना ही इस्लामी सिस्टम को फ़ायदा पहुंचेगा, जितना आपस में एक दूसरे को शक की नज़र से देखा जाएगा उतना ही यक़ीन बढ़ता जाएगा, कुछ जगहों पर अगर कोई आम आदमी अगर इस पर कुछ बोल दे या किसी ख़ास ढप पर कोई तालिबे इल्म सवाल कर दे तो यह बात भी सुनने को मिल जाती है कि ” तुमने विलायते फ़क़ीह को समझा ही कहां है तुम कल के लौंडे हो, विलायत का पक्ष रखने वाले तो फ़लां साहब हैं पहले उनकी बातों को समझो फिर विलायत की बात करो, कहीं यह तुच्छ मानसिकता है तो कहीं कुछ लोग विलायत की जड़ों को काट रहे हैं”।
बे मतलब की बातें और बहसें छिड़ी हैं, कहीं इंतेज़ार के चिल्ले की बात है कहीं उसके विरोध में बात हो रही है, यह सब इस बात से अंजान हैं मौला को इन चीज़ों से ज़्यादा मदद और नुसरत की ज़रूरत है, अमली क़दम उठा कर आगे बढ़ने वालों की ज़रूरत है, उन लोगों की ज़रूरत है जो इंसानियत के लिए कुछ कर सकें, उन लोगों की ज़रूरत है जो घर में क़ैद रह कर अपने जज़्बे की परस्तिश की ख़ातिर दीन के बुज़ुर्ग उलमा की पुष्टि के बिना नए नए आमाल और ज़िक्र तलाश कर क़ौम की मौजूदा हालात को और न बिगाड़ें।
क़ौम ख़तरनाक बीमारी से जूझ रही है, न जाने कितने घरों में राशन नहीं है, न जाने कितने दिहाड़ी मज़दूर हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं, और कुछ लोग अपने संबंध और रिश्तों की चादर ताने सो रहे हैं, मुंह पर भी ताला है और क़लम भी ख़ामोश है जिसकी वजह से किसी हल तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है।
कभी कभी किसी ग़रीब तक अगर कुछ राशन पहुंचता भी है तो बेचारा भूख से ज़्यादा ग़ैरत की मार से मर जाता है कि अगर एक पैकेट दिया जा रहा है तो उसके अलग अलग एंगल से फ़ोटो ज़रूरी है, ज़ाहिर है रिकॉर्ड में भी तो रहना है, सबकी अपनी अपनी मजबूरी है, ऐसे माहौल में हैदर के उन सच्चे इंतेज़ार करने वालों पर सलाम जो नाम के पीछे न भाग कर ख़ामोशी से ख़िदमत में लगे हुए हैं, अगर वह न होते तो ऐसे घुटन के माहौल में जीना कठिन हो जाता, सभी ऐसे जियालों इमाम के सच्चे चाहने वालों को दिल से सलाम, जिन्होंने आज के इतिहास की लाज रखी और हम जैसे लोगों को दिल की बात कहने का मौक़ा दिया जबकि एक बार और पंद्रह शाबान आई और गुज़र गई और हम जहां थे वहीं पड़े हैं….. ।