पंडित आनंद मोहन जुत्शी गुलजार देहलवी का इंतक़ाल उर्दू के शायर का ही जाना नहीं है बल्कि देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब के एक स्तंभ का ढह जाना है. कालेज से उन्हें सुनता रहा. दिल्ली में कई बार उनसे मिलना हुआ. हम जैसे लोगों से भी बहुत ही ख़लूस से मिला करते थे.
मुशायरों में वे दूर से ही पहचाने जाते थे. अपनी नफासत और वज़ादारी की वजह से. शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा और गुलाब का फूल शेरवानी में लगा होना उनकी खास पहचान थी.
वे जंग आज़ादी में भी शामिल रहे. पंडित नेहरू से लेकर कई सियासतदां उनकी शायरी के मुरीद रहे.
जरूरत है उन नौजवानों की हमको, जो आग़ोश में बिजलियों के पले हों, क़यामत के सांचे में अकसर ढले हों,’
जैसी पंक्तियां आज भी युवा आंदोलन में जोश भरने का काम करती हैं. देहलवी की शायरी समाज में लगातार बढ़ती संवेदनहीनता और खत्म होती इंसानियत को समर्पित हैं. अक्सर कई बड़े मंचों पर उनसे
‘जहां इंसानियत वहशत के हाथों जब्ह होती हो, जहां तज़लील है जीना वहां बेहतर है मर जाना.’
गुनगुनाने का की फ़रमाइश उनके चाहने वाले उनसे करते थे. कभी कहा था उन्होंने कि
शहर में रोज़ उड़ा कर मेरे मरने की ख़बर, जश्न वो रोज़ रक़ीबों का मना देते हैं.
लेकिन आज यह ख़बर सही निकली. वे थ, हैं और रहेंगे क्योंकि वे देश की उस तहज़ीब की नुमाइंदगी करते थे, जहां रिश्तों में मिठास थी और दिलों में प्यार. आप बेतरह याद आएंगे गुलज़ार देहलवी साहब.
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